वकील साहब की फीस दो हजार, साहब का दो लाख!

वकील साहब की फीस दो हजार, साहब का दो लाख!

वकील साहब की फीस दो हजार, साहब का दो लाख!


-कोई भी ऐसी पत्रावली नहीं जिसपर एसडीएम, तहसीलदार, नायब तहसीलदार पैसा नहीं लेते केस के हिसाब से रेट लगता, दोनों पक्षों में लगाई जाती बोली

-निशानदेही जैसे काम कराने में 50 हजार से लेकर लाख दो लाख तक लिए जाते

-नाम दुरुस्ती एवं त्रुटि को सही करने के लिए 10 से 20 हजार खर्च करना पड़ता, अग्रसारित करने के नाम पर चार से पांच हजार लिए जाते

-सबसे अधिक निशानदेही के मामले में गोलमाल होता, जब तक सौदा नहीं हो जाता, तब तक निस्तारित नहीं होता, सौदा हो जाने के बाद घर पर फील्डबुक बनाकर एसडीएम के पास भेजा जाता, वहां पर फीड कराने के नाम पर हजार दो हजार लिया जाता

-सौदा न होने की दशा में सालों-साल फाइल धूल फांकती रहती, राजस्व परिषद को निस्तारण का फर्जी रिपोर्ट भेजा जाता, ताकि पेंडेनसी न दिखाई दे, सरकार फर्जी आकड़ों पर अपनी पीठ थपथपाती

-अधिवक्ताओं ने कहा कि जब तक मुकदमा वापस नहीं लिया जाता या एफआर नहीं लग जाता तब तक कार्य बहिस्कार जारी रहेगा

बस्ती। जनता दरबार में जो बाते फरियादी ने हर्रैया के एसडीएम के बारे में डीएम से कही थी, वह सच साबित हो रहा है। कहा था, कि मनोज प्रकाश एसडीएम बनने लायक नहीं है। यहां पर हर पटल पर महीना लिया जाता है। इसी लिए हर पटल और हर न्यायालय में खुले आम धन की उगाही होती है। प्रदेश का यह पहला ऐसा तहसील होगा, जहां पर बात करने और कलम चलाने का तहसील वाले पैसा लेते है। वकील साहबों का दर्द यह है, कि उन्हें जिस केस में इतनी मेहनत करने के बाद एक दो हजार मुस्किल से मिलता है, वहीं बिना मेहनत के एसडीएम, तहसीलदार और नायब तहसीलदार दो लाख तक ले लेते है। कहा भी जाता है, कि अगर किसी अधिकारी पर कोई हाथ उठाता है, तो यह माना जाता है, कि अधिकारी ने ही कोई गलत किया होगा, तभी तो अधिवक्ता को हाथ उठाना पड़ा। वैसे भी कहा जाता है, कि यूंही कोई हाथ नहीं उठाता? कोई भी ऐसी पत्रावली नहीं जिसपर एसडीएम, तहसीलदार, नायब तहसीलदार पैसा नहीं लेते, केस के हिसाब से रेट लगता, दोनों पक्षों में बोली लगाई जाती। निशानदेही जैसे काम कराने में 50 हजार से लेकर लाख दो लाख तक लिए जाते। नाम दुरुस्ती एवं त्रुटि को सही करने के लिए 10 से 20 हजार खर्च करना पड़ता, अग्रसारित करने के नाम पर चार से पांच हजार लिए जाते, फीड कराने के नाम पर एक से दो हजार लिए जाते है। सबसे अधिक निशानदेही के मामले में गोलमाल होता, जब तक सौदा नहीं हो जाता, तब तक निस्तारित नहीं होता, सौदा हो जाने के बाद घर पर फील्डबुक बनाकर एसडीएम के पास भेजा जाता। सौदा न होने की दशा में सालों-साल फाइल धूल फांकती रहती, राजस्व परिषद को निस्तारण का फर्जी रिपोर्ट भेजा जाता, ताकि पेंडेनसी न दिखाई दे, सरकार फर्जी आकड़ों पर अपनी पीठ थपथपा रही है। अधिवक्ताओं का कहना हैं, कि जब तक मुकदमा वापस नहीं लिया जाता या एफआर नहीं लग जाता तब तक कार्यबहिष्कार जारी रहेगा। लेखपाल तो आंदोलन से हट चुके है। यह तीनों अधिवक्ताओं की गिरफतारी की मांग कर रहे थे, इन लेखपालों को इतना तक नहीं मालूम कि गिरफतारी सात साल के सजा वाले धारा में होती है।

महिनाथ तिवारी, बलदेव पाठक, विनोद मिश्र, तहावीर प्रसाद द्विवेदी, राम चंद्र यादव और साधू प्रसाद सहित अन्य अधिवक्ताओं ने बताया कि इस तहसील में बिना पैसा दिए कोई काम न तो एसडीएम, न तो तहसीलदार और न नायब तहसीलदार और न कानूनगो और न लेखपाल करते हैं, जब इनकी जेबों में पैसा चला जाता है, तब यह जेब से पेन निकालते। इन लोगों की कलम तब चलती है, जब इनकी जेबों में पैसा आ जाता है। साहबों के रास्ते में पटल और कोर्ट में काम करने वाले बाबू भी चल पड़े। इनकी मजबूरी यह है, कि अगर यह घूस नहीं लेगें तो साहब को महीना कहां से दंेगे? कोई महीना के नाम पर तो कोई कलम चलाने के नाम पर वादी/प्रतिवादी का खून चूस रहा है। पूरे प्रदेश में एक मुकदमें पर सबसे अधिक खर्च हर्रैया तहसील में होता है। क्यों कि यहां पर कदम-कदम पर पैसा लगता है। यहां के कास्तकार वकील साहब के फीस की उतनी चिंता नहीं करते जितना साहबों के लिए करते है। इसी लिए अधिवक्तताओं का कहना है, कि अगर उन्हें किसी केस में एक दो हजार मिलता है, तो साहब लोगों को लाख दो लाख मिलता है। जिस तहसील में तहसीलदार साहब अग्रसारित करने के नाम पर भारी रकम लेते हैं, उस तहसील का भगवान ही मालिक है। अब आप समझ गए होगें कि एसडीएम पर हाथ क्यों उठाया गया होगा? वैसे अधिवक्ताओं को भी अपनी सीमा में रहना होगा। उनका काम मुकदमा लड़ना हैं, हाथ उठाना नही। प्रदेश का पहला ऐसा तहसील होगा, जहां पर एसडीएम सहित अन्य अधिकारियों की मनमानी और तानाशाही रर्वैये के कारण कार्य बहिस्कार रह-रहकर होता रहता है। यहां का कार्य बहिष्कार एक दो दिन या सप्ताह तक नहीं चलता, बल्कि महीनों तक चलता है। जिन मांगों को लेकर अधिवक्ता कार्य बहिस्कार कर रहे हैं, उन्हें भी मालूम हैं, कि उनकी मांगें पूरी नहीं हो सकती। एफआर तक तो लगने की उम्मीद की जा सकती हैं, लेकिन मुकदमा उठाने की नहीं। दो अधिवक्ताओं की जमानत हो चुकी है, महिनाथ तिवारी की बाकी है। यह तहसील आज से नहीं बल्कि सालों से षासन और प्रशासन के हाथ से निकल चुका है। इस तहसील को कोई भी डीएम नहीं सुधार सकते। एसडीएम की तो बात ही छोड़ दीजिए। बहरहाल, किसी के एजेंडे में मुकदमा लड़ने वाले का दुख दर्द शामिल ही नहीं है। जब कि सबकी रोजी रोटी इन्हीं से ही चलती है। जिस तहसील में फर्जी रिर्पोटिगं होती हो, उस तहसील की प्रगति को कैसे सही माना जाए? यह सबसे बड़ा सवाल है।

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