जयंत मिश्र’ ने ‘हरवाया’ इस लिए ‘इस्तीफा’ दे रहा ‘हूं’ःमनोज यादव

जयंत मिश्र’ ने ‘हरवाया’ इस लिए ‘इस्तीफा’ दे रहा ‘हूं’ःमनोज यादव

जयंत मिश्र’ ने ‘हरवाया’ इस लिए ‘इस्तीफा’ दे रहा ‘हूं’ःमनोज यादव

-कहा कि ऐसे उत्तर प्रदेश एसोसिएशन आफ जर्नलिस्ट यानि ‘उपज’ के जिला उपाध्यक्ष के पद पर रहने से क्या लाभ जब इसके प्रदेश सचिव ही प्रेस क्लब के चुनाव में अपने ही पदाधिकारी की जगह दूसरे का पक्ष का साथ दें, जो अपने ही पदाधिकारी का सम्मान कगराने कर हिस्सा बने उस संगठन में रहने से बेहतर उसे छोड़ देना बेहतर

बस्ती। उत्तर प्रदेश एसोसिएशन आफ जर्नलिस्ट यानि ‘उपज’ के जिला उपाध्यक्ष मनोज कुमार यादव ने जिस तरह संगठन के प्रदेश सचिव जयंत कुमार मिश्र पर आरोप लगाते हुए इस्तीफा दिया, उससे व्यक्तिगत लाभ के लिए हराने और जीताने के खेल का खुलासा हो गया। अगर संगठन का प्रदेश स्तर का पदाधिकारी प्रेस क्लब के चुनाव में अपने ही जिला उपाध्यक्ष का साथ न देकर दूसरे पक्ष के प्रत्याशी का साथ देता है, तो सवाल खड़ा होगा ही। ऐसे में अगर महामंत्री पद से एक वोट से हारने वाले ‘उपज’ के जिला उपाध्यक्ष मनोज कुमार यादव यह कहते हुए इस्तीफा देते हैं, कि उत्तर प्रदेश एसोसिएशन आफ जर्नलिस्ट यानि ‘उपज’ के प्रदेश सचिव ही प्रेस क्लब के चुनाव में अपने ही पदाधिकारी की जगह दूसरे पक्ष का साथ दिया और जो अपने ही पदाधिकारी का सम्मान गिराने का हिस्सा बने, उस संगठन में रहने से बेहतर उसे छोड़ देना अच्छा होगा, को सही माना जा रहा है। मनोज कुमार यादव कहते हैं, ‘हम्हें तो अपनों ने मारा वरना गैरों में कहां इतना दम था’। एक तरफ जहां लोग अपने पैनल के लोगों को जीताने में लगे रहें, वहीं उपज के प्रदेश सचिव ने अपने ही संगठन के जिला उपाध्यक्ष को हराने के लिए पूरा जोर लगा दिया, कुछ ऐसा ही आरोप संगठन के जिला उपाध्यक्ष ने लगाते हुए इस्तीफा दे दिया। इस घटना को किसी भी हालत में किसी भी संगठन के पदाधिकारी को हल्के में नहीं लेना चाहिए, क्यों कि आरोप नितांत गंभीर किस्म का लगाया गया। अगर आरोप सही है, तो फिर सवाल उठ रहा है, कि चुनाव में प्रत्याशी भरोसा करे तो किस पर करें? जिस पर सबसे अधिक भरोसा करता है, चुनाव बाद पता चलता है, उसी ने भरोसा तोड़ा। किसी की हार तब और कड़वी और दुखद हो जाती है, जब उसे लगता हैं, कि वह तो अपनों के दगाबाजी के कारण हारा। इससे पहले भी कहा जा चुका है, कि इस बार के चुनाव में जो हुआ वह कभी नहीं हुआ, वह सच साबित होता जा रहा है। इस चुनाव में सबसे अधिक लोगों ने विष्वास को खोया, जिसपर सबसे अधिक विष्वास किया, उसी ने दगा दिया। दगा भी प्रलोभन में दिया। चुनाव से पहले प्रत्याशियों की ओर से जो जीत की रणनीति बनती है, वह अपनों के विष्वास पर ही बनती है। ऐसे में अगर विष्वास का ही लोग खून करने लगेंगें तो रोना पड़ेगा ही। वरिष्ठ पत्रकारों ने इस चुनाव में अपनी जिम्मेदारियांे को नहीं निभाया, जिसके चलते मर्यादाएं टूटी, पुराने संबध टूटे। स्थित यह हो गई हैं कि अब तो पत्रकार उन लोगों को मंच पर बैठते हुए नहीं देखना चाहते, जिन लोगों ने चुनाव की सुचिता को तार-तार किया, अगर कोई वरिष्ठ पत्रकार इस लिए किसी बैठक का बहिष्कार करता है, कि जब तक ऐसे लोग मंच पर रहेगें, मैं बैठक का हिस्सा नहीं बन सकता। इसे सभी को गंभीरता से लेना चाहिए। अगर इस समस्या का समाधान नहीं निकाला गया तो न जाने कितने पत्रकार बैठक का बहिष्कार करतें नजर आएगें। तो फिर मंच पर वही लोग बैठे मिलेगें, जिन्होंने पत्रकार और पत्रकारिता की गरिमा को गिराया हो। सवाल उठ रहा है, कि यह कैसा चुनाव था, जहां पर पहले से ही तय था, कि कौन-कौन पदाधिकारी चुने जाएगें। जब तक पत्रकार अंर्तत्मा की आवाज पर वोट नहीं करेगा, तब तक वही लोग जीतते आएगें जो जीतते आ रहंे हैं। विष्वासघात को देखते हुए एकाध पदाधिकारी ने कह भी दिया कि अब वह कभी भी चुनाव नहीं लड़ेगे। फिक्सिगं मैंच की तरह पदाधिकारी भी फिक्सड् नहीं होना चाहिए।

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