‘ईमानदार’ नेताओं का खर्चा ‘पेंशंन’ से, ‘बेईमानों’ का ‘निधि’ और ‘कमीशन’ से ‘चलता’!

‘ईमानदार’ नेताओं का खर्चा ‘पेंशंन’ से, ‘बेईमानों’ का ‘निधि’ और ‘कमीशन’ से ‘चलता’!

‘ईमानदार’ नेताओं का खर्चा ‘पेंशंन’ से, ‘बेईमानों’ का ‘निधि’ और ‘कमीशन’ से ‘चलता’!

-ईमानदार नेताओं को अगर पेंषन न मिले तो उनके खाने के लाले पड़ जाए, जनता ने एक तरह से ईमानदार नेताओं के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया

-जनता ने अम्बिका सिंह, राजमणि पांडेय और राम जियावान को तो ईमानदार नेता बता दिया, लेकिन जनता ने क्या किया, इनके स्थानों पर बेईमानों को लाकर पटक दिया

-ईमानदार नेता परिवार का भरण-पोषण ठीक से कर ले वही बड़ी बात, वहीं बेईमान नेता अपने सात पुष्तों का इंतजाम कर जाता, ईमानदार नेता अगर चुनाव लड़ता है, तो उसे कुछ हजार ही वोट मिलता, वहीं बेईमान नेताओं को 50-50 हजार वोट मिलता

-एक ईमानदार नेता अपने परिवार के लिए अच्छे कपड़े और उनकी ख्वाहिश को पूरा नहीं कर पाते, वहीं ऐसे भी नेता है, जो राखी बधंवाने के नाम पर लाखों खर्च करतें

-ईमानदार नेता तो अनेक हैं, लेकिन जनता उन्हें भूल गई, अगर ऐसा नहीं होता तो जनता तीनों ईमानदार नेताओं को उनके राजनीति के जीवन को अंधकारमय न बनाती

-ईमानदार नेताओं का हर्ष देख बेईमान नेता ईमानदार नहीं बनना चाहता, क्यों कि वह अपने परिवार का भरण-पोषण पेंशन के भरोसे नहीं करना चाहता

-कल के ईमानदार नेताओं की हालत आज के बेईमान नेताओं के कथित प्रतिनिधियों से भी बददर हो चुकी, यह चार पहिया से और ईमानदार नेता स्कूटर से तो चलतें

-आज एक भी ऐसा बेईनाम नेता नहीं होगा, जिसके परिवार के लोग ठेकापटटी न करते हो, और जिनके पास गैस की एजेंसी और पेटोल पंप न हो, इनकी तुलना में एक भी ईमानदार नेता के पास जीविका का कोई साधन नहीं

-जब से निधि प्रारंभ हुआ, तब से नेता बेईमान होने लगें, तभी से ही नेताओं में गिरावट आनी शुरु हो गई, और 2001 के बाद तो गिरावट चरम पर पहुंच गया

-नेताओं को ईमानदार और बेईमान दोनों जनता ने बनाया, जनता ईमानदार नेता को चुनना ही नहीं चाहती, वह बेईमान को चुनती और यही बेईमान नेता सबसे पहले जनता का पैसा ही खातें

-जनता का रुख देख ईमानदार नेताओं ने चुनाव लड़ना ही बंद कर दिया, अगर किसी को पार्टी मजबूरी में लड़ाती है, तो जनता ऐसे लोगों की जमानत तक जप्त करवा देती

बस्ती। आजकल सोशल मीडिया पर ईमानदार और बेईमान नेताओं को लेकर बहस छिड़ी हुई है। कहा जा रहा है, कि जो चंद ईमानदार नेता बचे हुए हैं, उनका परिवार पेंशन पर चल रहा है, और जो असंख्य बेईमान नेता है, उनके परिवार का भरण-पोषण निधियों से चलता है। जो ईमानदार हैं, जनता उनके बारे में यह तक जानना नहीं चाहती कि उनका परिवार किन परिस्थितयों से गुजर रहा है, और जो बेईमान किस्म के नेता है, उनके आवास और कार्यालयों में ठेकेदारों की भरमार रहती। ईमानदार नेता अगर चुनाव लड़ता है, तो वह अपनी जमानत तक नहीं बचा पाता, और जब कोई बेईमान लड़ता है, तो उसे 50-50 हजार वोट मिलता है। अब सवाल उठ रहा है, कि इसके लिए कौन जिम्मेदार? यह भी सवाल उठ रहा है, कि जनता आखिर ईमानदार नेताओं को क्यों दुत्कार रही है? और क्यों बेईमानों को गले लगा रही? कहने का मतलब जनता ही ईमानदार नेताओं को नहीं चाहती, भले ही चाहें उसे बाद में पछताना ही क्यों न पड़े? कहा जाता है, कि अगर ईमानदार नेताओं को पेंशन न मिले तो उनके खाने के लाले पड़ जाए, ईमानदार नेता परिवार का भरण-पोषण ठीक से कर ले वही उसके लिए बड़ी बात, भले ही ऐसे लोगों के पास चोरी चमारी का पैसा न हो, लेकिन इनके पास, इज्जत, मान और सम्मान बहुत है। वहीं बेईमान नेता अपने सात पुष्तों का इंतजाम कर जाता, भले ही जनता चाहें ऐसे लोगों को लुटेरा ही क्यों न कहें? जनता ने एक तरह से ईमानदार नेताओं के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया, उनका राजनेैतिक जीवन अंधकारमय बना दिया, अगर ऐसा नहीं होता तो अम्बिका सिंह, राजमणि पांडेय और राम जियावान जैसे लोग सदन में होते। जनता इन्हें भुला न देती, और न ही इनके स्थानों पर बेईमानों को जीताती। देखा जाए तो एक ईमानदार नेता अपने परिवार की ख्वाहिशों को षायद पूरा नहीं कर पाते होगें, वहीं ऐसे भी नेता है, जो राखी बधंवाने के नाम पर लाखों खर्च कर देतें। जाहिर सी बात हैं, कि इतना पैसा एक ईमानदार नेता तो नहीं खर्च कर सकता। ईमानदार नेता तो अनेक हैं, लेकिन जनता उन्हें भूल गई। ईमानदार नेताओं का हर्ष देख बेईमान नेता ईमानदार नहीं बनना चाहता, क्यों कि वह अपने परिवार का भरण-पोषण पेंशन के भरोसे नहीं करना चाहता।

कल के ईमानदार नेताओं की हालत आज के बेईमान नेताओं के कथित प्रतिनिधियों से भी बददर हो चुकी, यह चार पहिया से और ईमानदार नेता स्कूटर और दूसरे की गाड़ी से चलतें। आज एक भी ऐसा बेईमान नेता नहीं होगा, जिसके परिवार के लोग ठेकापटटी न करते हो, और जिनके पास गैस की एजेंसी और पेटोल पंप न हो, इनकी तुलना में एक भी ईमानदार नेता के पास जीविका का कोई साधन नहीं। जब से निधि प्रारंभ हुआ, तब से नेता बेईमान होने लगें, तभी से ही नेताओं में गिरावट आनी षुरु हो गई, और 2001 के बाद तो गिरावट चरम पर पहुंच गया। नेताओं को ईमानदार और बेईमान दोनों जनता ने बनाया, जनता ईमानदार नेता चुनना ही नहीं चाहती, वह बेईमान को चुनती और यही बेईमान सबसे पहले जनता का पैसा ही खातें है। जनता का रुख देख अब तो ईमानदार नेताओं ने चुनाव लड़ना ही बंद कर दिया, अगर किसी को पार्टी मजबूरी में लड़ाती है, तो जनता ऐसे लोगों की जमानत तक जप्त करवा देती है। गिरावट सिर्फ नेताओं में ही नहीं आई, बल्कि सबसे अधिक गिरावट जनता की सोच में आई। बार-बार सवाल उठ रहा है, कि आखिर जनता क्यों नहीं अपने वोट का सही इस्तेमाल करती? क्यों नोट के बदले वोट को महत्व देती? क्यों दारु, मुर्गा मीट और मछली पर बिक जाती है? ईमानदार नेता इस लिए मजबूती से चुनाव नहीं लड़ पाते क्यों कि उनके पास अवैध कमाई का स्रोत नहीं होता? कई ईमानदार नेताओं को तो पैसे के अभाव में चुनाव हारते देखा गया। आज जितने भी चुनाव हो रहे हैं, वह विचार धारा या फिर ईमानदारी पर नहीं हो रहे हैं, बल्कि धन और बल पर हो रहें है। चुनाव ने एक तरह से पार्टियों और नेताओं को बेईमान बना दिया। आज पार्टियां भी अच्छी छवि वाले नेताओं पर दांव नहीं लगाना चाहती, वह उन लोगों पर दांव लगाना चाहती, जो पहले पार्टी फंड में करोड़ों दे और उसके बाद वह इस लायक हो कि चुनाव में करोड़ों खर्च कर सके। जाहिर सी बात हैं, कि इस चुनावी फंडे में ईमानदार नेताओं कहीं नहीं फिट बैठते। सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है, कि अंम्बिका सिंह, राजमणि पांडेय और राम जियावन में ऐसी कोैन सी कमी है, जो यह बेईमान नेताओं के सामने अपनी जमानत तक नहीं बचा पाते। जीतना और दमदारी से लड़ना तो बहुत दूर की बात है। हालांकि इसका सबसे अधिक खामियाजा जनता को ही भुगतना पड़ता है।

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