वक्त के साथ बदलने से इनकार करता विपक्ष,
- Posted By: Tejyug News LIVE
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- Updated: 22 January, 2025 17:57
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वक्त के साथ बदलने से इनकार करता विपक्ष, देश में विपक्षी खेमा शायद ही कभी इतना दिशाहीन एंव दायित्व से विमुख रहा हो, जैसा इस समय है। विपक्ष की दयनीय दशा का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में किसी विपक्षी दल को औपचारिक रूप से नेता-प्रतिपक्ष का पद हासिल करने लायक सीटें भी प्राप्त नहीं हुईं।
बीते आम चुनाव में विपक्ष की स्थिति में कुछ सुधार जरूर हुआ, लेकिन लगता नहीं कि विपक्षी नेताओं ने इससे कोई सबक लिया है। यदि ऐसा होता तो नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी यह नहीं कहते कि वह मोदी सरकार के साथ-साथ भारतीय राज्य से भी लड़ रहे हैं। इससे उनकी राजनीतिक अपरिपक्ता के साथ अंध मोदी विरोध भी प्रकट होता है।
लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सरकार के रचनात्मक विरोध की है कि वह सरकारी नीतियों की निगरानी एवं उन्हें जनोपयोगी बनाने में अपनी भूमिका निभाए, लेकिन मौजूदा विपक्ष ने सरकार के अंधविरोध की राह अपनाकर उसका दायरा भारतीय राज्य के खिलाफ मुहिम छेड़ने तक कर दिया है। हैरानी नहीं कि विपक्षी दल अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं।
लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों से यह स्पष्ट भी हुआ है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को कुछ तात्कालिक झटका जरूर लगा था, मगर उसने उससे सबक लेकर अपनी रणनीति को सुसंगत बनाया और सफलता हासिल की, जबकि विपक्षी दलों ने अपनी छोटी सी बढ़त भी गंवा दी।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य यही संकेत करता है कि उन दलों का अब कोई भविष्य नहीं, जो खुद को राष्ट्रहित से नहीं जोड़ पा रहे। इसी कारण वंशवादी दल सिकुड़ रहे हैं। देश के समक्ष मुख्य समस्या भ्रष्टाचार, जातिवाद, परिवारवाद एवं तुष्टीकरण की है। इन समस्याओं से केवल भाजपा और उसके सहयोगी दल ही लड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं।
विपक्षी दल स्वयं को समय के साथ परिवर्तित करने में असफल हो रहे हैं। वे संपत्ति का सृजन करने वालों को अनावश्यक रूप से निशाना बना रहे हैं। वे उन कम्युनिस्ट देशों की ओर भी नहीं देखते, जिन्होंने देश-काल और परिस्थितियों के अनुरूप अपना रवैया बदला। इसी कारण वे सफल भी रहे। चीन और रूस जैसे कम्युनिस्ट देशों ने भी पूंजीवाद को अपनाया।
इससे वहां के दलों के राजनीतिक वजूद को भी कोई खास नुकसान नहीं हुआ। कुछ साल पहले चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के एक शीर्ष नेता से यह सवाल पूछा गया था कि आप पूंजीवाद को आगे क्यों बढ़ा रहे हैं? उस नेता का जवाब था-हम समाजवाद की रक्षा के लिए पूंजीवाद अपना रहे हैं। उधर रूस ने भी ऐसी ही बदली हुई नीति अपनाई और सोवियत संघ के विघटन के उपरांत खुद को नए सिरे से गढ़ा।
अपने देश में भी जयप्रकाश नारायण और डा. राममनोहर लोहिया ने देशहित में समय-समय पर अपनी रणनीतियां बदलीं और उसमें सफल भी हुए। डा. लोहिया पहले ‘एकला चलो’ के पक्षधर थे, लेकिन 1964-65 तक आते-आते उन्होंने जरूरत देखकर गैर-कांग्रेसी दलों को एक मंच पर लाने का काम किया, क्योंकि 50 प्रतिशत से भी कम वोट लाकर भी कांग्रेस लगातार सत्ता में बनी हुई थी।
जयप्रकाश नारायण ने भी जब बिहार आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ का साथ लिया तो उनकी आलोचना हुई, लेकिन उन्होंने देश के व्यापक हित में उन आलोचनाओं को नजरअंदाज किया। सत्ता पर कांग्रेसी एकाधिकार तोड़ने के लिए एक समय लोहिया जनसंघ के अलावा कम्युनिस्टों से भी तालमेल चाहते थे, जबकि जार्ज फर्नांडिस कम्युनिस्टों के साथ चुनावी तालमेल के सख्त खिलाफ थे।
पार्टी के एक मंच पर लोहिया की ओर संकेत करते हुए फर्नांडिस ने कहा था कि कम्युनिस्टों से तालमेल करोगे तो अपना मुंह काला कराकर आओगे। इस पर लोहिया बोले थे कि नहीं तालमेल करोगे तो तुम्हारा मुंह डबल काला होगा। आखिरकार तालमेल हुआ।
राजनीति में लचीलापन बहुत जरूरी है। कुछ लोगों द्वारा कट्टर हिंदू के रूप में चित्रित किए जाने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चढ़ाने के लिए चादर भेजते हैं।
जबकि कांग्रेस के शीर्ष नेता न तो एक समय सोमनाथ मंदिर गए और न ही आज के उसके नेता अयोध्या में रामलला के दर्शन के लिए गए। राहुल गांधी ने अचानक मंदिर जाना बंद कर दिया है। दरअसल कांग्रेस का पूरा जोर अल्पसंख्यकों के बीच अतिवादी तत्वों के तुष्टीकरण पर है। वह भी तब, जब पार्टी के दिग्गज नेता रहे एके एंटनी ने पार्टी हाईकमान से यह अपील की थी कि वह हिंदुओं से भी निटकता दिखाए, क्योंकि सत्ता में आने के लिए मुसलमान मत ही पर्याप्त नहीं हैं।
याद रहे कि 2014 में करारी हार के बाद एंटनी को ही हार के कारणों की पड़ताल का जिम्मा सौंपा गया था, जिसमें मुस्लिमों के प्रति अत्यधिक झुकाव एक प्रमुख कारण सामने आया। पता नहीं उनकी संस्तुतियों पर कांग्रेस आलाकमान ने कितना ध्यान दिया, लेकिन एंटनी के बेटे अनिल एंटनी का जरूर कांग्रेस से मोहभंग हो गया और उन्होंने भाजपा के टिकट पर केरल से लोकसभा चुनाव भी लड़ा।
असल में कांग्रेस ने अपनी समावेशी एवं आदर्श रूप से सेक्युलर छवि बनाने के बजाय उन प्रतिबंधित संगठनों के साथ भी गलहबियां कीं, जिनकी कड़ियां पीएफआइ तक से जुड़ी रहीं। पहले राहुल और अब प्रियंका जिस वायनाड सीट का लोकसभा में प्रतिनिधित्व कर रही हैं, वहां भी कांग्रेस को मुस्लिम लीग से तालमेल करना पड़ा।
यह किसी से छिपा नहीं कि देश को तमाम भीतरी एवं बाहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में विपक्षी दलों से यही अपेक्षा की जाती है कि वे सरकार का अंधविरोध छोड़कर अपनी सार्थक भूमिका के साथ न्याय करें। नीतियों पर सरकार को घेरें तो आवश्यक मुद्दों पर उसका सहयोग भी करें।
याद रहे कि 1962, 1965 और 1971 के चीन और पाकिस्तान के साथ युद्धों में विपक्षी दलों ने एकाध अपवाद को छोड़कर खुले दिल से तत्कालीन केंद्र सरकारों का साथ दिया था, लेकिन आज उलटा दिख रहा है। कई बार तो विपक्ष की गतिविधियां चीन और पाकिस्तान जैसे बिगड़ैल पड़ोसियों का मनोबल बढ़ाने वाली होती हैं। यह कहीं से भी उचित नहीं है।
सुरेंद्र किशोर।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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