नेताजी सत्ता चाहिए तो जाति की राजनीति छोड़ दीजिए!

नेताजी सत्ता चाहिए तो जाति की राजनीति छोड़ दीजिए!

नेताजी सत्ता चाहिए तो जाति की राजनीति छोड़ दीजिए!

-जाति की राजनीति न किए होते तो आज सपा सत्ता में होती, जाति की राजनीति करने से ही बार-बार सपा सत्ता के करीब पहुंचकर भी सत्ता हासिल नहीं कर पा रही

-जिस भी पार्टी ने जाति की राजनीति की उसका पतन तय, उदाहरण के रुप में बसपा को देखा जा रहा, कोई भी पार्टी जाति के नाम पर समाज को अधिक दिन तक बेवकूफ नहीं बना सकती

-सवाल उठ रहे हैं, कि आखिर जाति की राजनीति क्यों? क्यों जाति की राजनीति करके समाज में पार्टियां नफरत का जहर बो रही

-वर्तमान में न केवल जाति की राजनीतिकरण हो रहा है, बल्कि राजनीति का ही जातिकरण हो गया

-अंबेडकरजी ने कहा भी कि आप जाति के आधार पर किसी का निर्माण नहीं कर सकते, अगर करेंगेे तो उसमें दरार पड़ जाएगा

-संविधान को खतरे में बताने वाले क्यों नहीं यह सोचते कि संविधान में भारत को धर्म निरपेक्ष देष बताया गया

-आखिर जनता अपने बच्चों को जाति धर्म के नाम पर नफरत फैलाना क्यों सीखाना चाहती, आने वाली पीढ़ी उन नेताओं को कभी माफ नहीं करेगी जो समाज में जाति के नाम पर नफरत फैला रहें

-दोश नेताओं का नहीं बल्कि जनता का है, जो जाति की राजनीति का समर्थन कर अपने पैर में खुद कुल्हाड़ी मार रही, जाति-पाति की राजनीति करने वालों को समाज सिरे से ठुकराती आ रही

-जाति की राजनीति करने वाले किसी पार्टी के नेताओं में क्या इतनी हिम्मत हैं, कि वह खुले आम यह कह सके कि हम्हें सिर्फ यादव, मुस्लिम, चौधरी, दलित, पंडितजी और बाबूसाहब का ही वोट चाहिए किसी अन्य जाति का नहीं?

-देश में कोई भी ऐसा सांसद या विधायक नहीं होगा जो यह कहने की स्थित में हैं, कि वह तो सिर्फ एक विशेष जाति के वोट से ही जीते

-किसी विशेष जाति के बल पर चुनाव जीतने वाले लोग तो अपने लिए साम्राज्य तो खड़ा कर लेते हैं, लेकिन उन लोगों को समाज के हवाले कर दे रहे हैं, जिनके नाम पर सत्ता हासिल किया

-अभी से ही यादव, चौधरी और मुस्लिम समाज के अनेक लोग यह कहने लगें हैं, कि बनने दिजीए नेताजी को मुख्यमंत्री पंहट कर रख दूंगा, न छटी का दूध पिला दिया तो मेरा नाम फंला यादव नहीं

-जिस समाज में जाति के नाम पर न्यौता हकारी हो और मदद की जा रही हो तो उस समाज का भगवान ही मालिक

-नेताओं की देखा-देखी अधिकारियों और कर्मचारियों में ही जाति की भावना पैदा हो गई, जाति देखकर सुनी और कार्रवाई की जाती

बस्ती। जिस तरह नेता अपने लाभ के लिए जाति का सहारा लेकर समाज में नफरत का बीज बो रहें हैं, उसकी फसल जब आने वाली पीढ़ी काटेगी और जब मारपीट खून खराबा होगा, तब उन्हें यह एहसास होगा कि उनके बाप और दादाओं ने जाति की राजनीति करके कितनी बड़ी गलती की। इस लिए अगर आने वाली पीढ़ी को बचाना है, तो जाति की राजनीति छोड़नी होगी, नहीं तो इस आग में सबसे अधिक उन परिवार के लोगों को जलना पड़ेगा जिन लोगों ने या तो जाति की राजनीति की या फिर जाति की राजनीति करने वालों को बढ़ावा दिया या फिर समर्थन किया। इसका असर अभी से गांव गढ़ी से लेकर कस्बे और शहर तक में दिखाई देने लगा। कहा जाने लगा कि जिस दिन नेताजी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बन गए उस दिन आप लोगों को छठी का दूध याद न दिला दिया तो फंला जाति का बेटा नहीं। याद रखिए, अंबेडकरजी ने कहा भी हैं, कि आप जाति के आधार पर किसी का निर्माण नहीं कर सकते, अगर करेंगेे तो उसमें दरार पड़ जाएगा। नेताओं की मेहरबानी से दरार पड़नी शुरु भी हो चुकी है। दोष नेताओं का नहीं बल्कि जनता का है, जो जाति की राजनीति का समर्थन कर अपने पैर में खुद कुल्हाड़ी मार रही, जाति-पाति की राजनीति करने वालों को समाज आज नहीं तो कल सिरे से ठुकरा देती हैं, इसका उदाहरण बसपा के रुप में देखा जा सकता है। जिस बसपा के राज में दलित की ओर कोई बुरी नजर से आंख उठाकर देख नहीं सकता था, आज उसी दलित की बहुओं और बेटियों का बलात्कार हो रहा है, उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है। देखने, समझने और आखं खुलने वाली बात यह है, कि जिस दलित के नाम पर मायावती ने सालों प्रदेश में राज किया, आज वह कहां खड़ी और दलित समाज कहां खड़ा हैं, इसका फैसला समाज को करना है। पार्टी और मायावती को दुनियां देख रही है। पार्टी कहां से कहां चली गई, क्या इसका एहसास मायावती को नहीं होगा? अवष्य होगा, आज इस पार्टी का कोई टिकट खरीदने वाला नहीं हैं, क्यों कि अब मायावती यह गांरटी नहीं दे सकती है, जितना आप नोट दे रहें उससे कई गुना अधिक हम आपको वोट दे रहें है। सवाल उठ रहा है, कि क्या मायावती आज नोट के बदले वोट देने की गांरटी देने की स्थित में हैं? इसी लिए बार-बार कहा जा रहा हैं, कि जाति की राजनीति मत करिए, नहीं तो एक दिन मायावती जैसा हाल हो जाएगा।  

खास बात यह है, कि जाति की राजनीति न किए होते तो आज सपा सत्ता में होती, जाति की राजनीति करने से ही बार-बार सपा सत्ता के करीब पहुंचकर भी सत्ता हासिल नहीं कर पा रही। जिस भी पार्टी ने जाति की राजनीति की उसका पतन तय, उदाहरण के रुप में बसपा को देखा जा सकता है। कोई भी पार्टी जाति के नाम पर समाज को अधिक दिन तक बेवकूफ नहीं बना सकती। सवाल उठ रहे हैं, कि आखिर जाति की राजनीति क्यों? क्यों जाति की राजनीति करके समाज में पार्टियां नफरत का बीज बो रही हैं। यह भी कहा जा रहा है, कि वर्तमान में न केवल जाति की राजनीतिकरण हो रहा है, बल्कि राजनीति का ही जातिकरण हो गया। संविधान को खतरे में बताने वाले क्यों नहीं यह सोचते कि संविधान में भारत को धर्म निरपेक्ष देष बताया गया। आखिर जनता अपने बच्चों को जाति धर्म के नाम पर नफरत फैलाना क्यों सीखाना चाहती, आने वाली पीढ़ी उन नेताओं को कभी माफ नहीं करेगी जो समाज में जाति के नाम पर नफरत फैला रहें है। दोष नेताओं का नहीं बल्कि जनता का है, जो जाति की राजनीति का समर्थन कर अपने पैर में खुद कुल्हाड़ी मार रही, जाति-पाति की राजनीति करने वालों को समाज सिरे से ठुकराती आ रही है। सवाल उठ रहा है, कि जाति की राजनीति करने वाले किसी पार्टी के नेताओं में क्या इतनी हिम्मत हैं, कि वह खुले आम यह कह सके कि हम्हें सिर्फ यादव, मुस्लिम, चौधरी, दलित, पंडितजी और बाबूसाहब का ही वोट चाहिए किसी अन्य जाति का नहीं? देश में कोई भी ऐसा सांसद या विधायक नहीं होगा जो यह कहने की स्थित में हैं, कि वह तो सिर्फ एक विषेष जाति के वोट से ही जीते है। किसी विशेष जाति के बल पर चुनाव जीतने वाले लोग तो अपने लिए साम्राज्य तो खड़ा कर लेते हैं, लेकिन उन लोगों को सड़क पर छोड़ दे ते हैं, जिनके नाम पर सत्ता हासिल किया या फिर साम्राज्य खड़ा किया। अभी से ही यादव, चौधरी और मुस्लिम समाज के अनेक लोग यह कहने लगें हैं, कि बनने दिजीए नेताजी को मुख्यमंत्री पंहट कर रख दूंगा, न छटी का दूध याद दिला दिया तो मेरा नाम फंला यादव नहीं। जिस समाज में जाति के नाम पर न्यौता हकारी हो और मदद की जाती हो उस समाज का भगवान ही मालिक। नेताओं की देखा-देखी अधिकारियों और कर्मचारियों में ही जाति की भावना पैदा हो गई, जाति देखकर सुनी और कार्रवाई की जा रही है।

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