महेंद्रजी अगर पूर्व विधायक होना चाहतें तो खूब गेट लगवाइए!

महेंद्रजी अगर पूर्व विधायक होना चाहतें तो खूब गेट लगवाइए!

महेंद्रजी अगर पूर्व विधायक होना चाहतें तो खूब गेट लगवाइए!


-लेकिन अगर दुबारा विधायक बनना है, तो गेट लगाने में 50 फीसद कमीशन का मोह छोड़ना होगा, वरना फारचूनर और आवास के गेट के बाहर पूर्व विधायक का स्टीकर लगाना पड़ेगा

-विधायकजी 10 लाख का गेट 10 घंटा भी नहीं चला, बदनामी और नारेबाजी का दंश अलग से झेलना पड़ा, क्या यही हैं, आप का विकास

-विधायकजी अगर यही 10 लाख जनता की बुनियादी जरुरतों पर खर्च किया होता तो आज अपने ही आप के खिलाफ नारेबाजी नहीं करते

-विधायकजी गेट लगाने से कभी जनता का विकास हुआ है क्या? विकास जनता की बुनियादी आवष्यकताओं को पूरा करने पर होती, यही 10 लाख जनता की बुनियादी जरुरतों पर खर्च किया होता तो आज अपने ही आप के खिलाफ नारेबाजी नहीं करते, भाजपाई खुश हो रहें

-आपने जिस चौरसिया समाज के लिए जनता की गाढ़ी कमाई का दस लाख खर्च किया न तो उसका लाभ चौरसिया वर्ग को मिला, चौधरी वर्ग अलग से नाराज हुए, एक तरह से आपने गेट लगवाकर पीडीए में दरार पैदा कर दिया

-वैसे भी शेक्सपियर ने कहा कि नाम में क्या रखा, अगर होता तो जिस जिले में लोहियाजी ने जन्म लिया उस जिले का नाम अंबेडकरनगर न होता, क्या इससे लोहियाजी की प्रासंगिता कम हुई क्या?

-आज भी अंबेडकरवादी अंबेडकरजी को और समाजवादी लोहियाजी को अपना आदर्श मानते हैं, इसी तरह बाबू शिवदयाल सिंह चौरसिया और पटेलजी दोनों आदरर्श, किसी चौराहें पर गेट और प्रतिमा लगा देना ही महापुरुषों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि नहीं होती

-महापुरुषों को जाति में बांटने से सामाजिक तानाबाना कमजोर हो जाता, यह गलत संदेश जाता हैं, कि जाति ही किसी व्यक्ति की पहचान है, न कि उसके कर्म और योगदान

-जब किसी महापुरुष को उसकी जाति के आधार पर पहचाना जाता है, तो यह अन्य जातियों के लिए भेदभाव का कारण बनता, इससे समाज में विभाजन बढ़ता, एकता कमजोर होती

बस्ती। सपा के सदर विधायक महेंद्रनाथ यादव ने पटेल चौराहें पर बाबू शिवदयाल सिंह चौरसिया के नाम का गेट क्या लगवाया, उनके गले की फंास बन गई। यह पहले ऐसे विधायक हैं, जिन्हें गेट लगवाने का न सिर्फ विरोध झेलना पड़ रहा है, बल्कि नारेबाजी का दंष भी झेलना पड़ा। पहली बार जनता ने 10 लाख का गेट 10 घंटा भी नहीं खड़ा रहने दिया। गेट को लेकर जनता की इतनी नाराजगी थी, कि उन्होंने पहले विधायक को फोटो फाड़ा और उसके बाद जिसके नाम से गेट बना था, उसको भी अपमानित किया। विधायकजी जनता जानना चाहती है, कि ऐसे गेट पर लाखों लगाने से क्या फायदा जिसका विरोध जनता करें। यानि जनता का दस लाख रुपया विधायकजी ने बर्बाद कर दिया, बाबू शिवदयाल सिंह चौरसिया की आत्मा को अलग से तकलीफ पहुंची होगी। बार-बार सवाल उठ रहा है, कि आखिर माननीयगण गेट लगवाने में ही इतना रुचि क्यों लेते हैं? क्यों नहीं सड़क नाली और पेयजल जैसी बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराने में दिलचस्पी लेते। जनता इसका सीधा सा जबाव यह देती है, कि गेट में माननीयगण को 50 फीसद कमीशन मिलता है, नाली, खंडजा में 20 फीसद, इसी लिए माननीयगण गेट लगवाने के लिए उतावले रहते हैं, किस महापुरुष के नाम गेट लगना हैं, उसकी छानबीन इनके चेले चापड़ और कार्यदाई संस्था सिडको खूब करती है। अब जरा अंदाजा लगाइए कि किसी माननीय ने गेट में 50 फीसद कमीशन ले लिया, जाहिर सी बात हैं, ठेकेदार भी कम से कम 20 फीसद कमीशन लेगा ही, कार्यदाई संस्था भी कम से कम 10 फीसद लेगी, तो बचा कितना 20 फीसद यानि अगर किसी गेट पर दस लाख का बजट बना तो कमीशन के रुप में 80 फीसद चला जाता है। गेट की असली लागत दो लाख हुई। माननीयगण ने जितना पैसा गेट लगाने में खर्च किया, उतना अगर जनता के विकास पर खर्च किए होते तो जनता जयजयकार करती, फिर उन्हें दुबारा जीतने के लिए जनता के सामने हाथ न जोड़ना पड़ता और न ही पैर ही पकड़ना पड़ता। माननीयों के हार का सबसे बड़ा कारण गेट को भी माना जाता है। ऐसे भी माननीय है, जिन्होंने अपने पहले बजट का आधा पैसा गेट पर लगा दिया, ताकि जल्दी से जल्दी चुनाव का खर्चा निकल सके। जनता का कहना और मानना है, कि माननीयों के लिए गेट एक बहुत बड़ा कमाई का जरिया बन गया है। माननीयों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता सबकुछ देख और समझ रही है। यह कैसी बिडंबना है, कि जनता का पैसा और जनता से ही नहीं पूछा जाता कि उसे गेट चाहिए या नाली, सड़क, बिजली और पेयजल?

विधायकजी ने जिस चौरसिया समाज के लिए जनता की गाढ़ी कमाई का दस लाख खर्च किया उसका लाभ तो चौरसिया वर्ग को नहीं मिला, अलबत्ता चौधरी वर्ग अलग से नाराज हुए, एक तरह से विधायकजी ने गेट लगवाकर पीडीए में दरार पैदा कर दिया। वैसे भी शेक्सपियर ने कहा कि नाम में क्या रखा, अगर होता तो जिस जिले में लोहियाजी ने जन्म लिया उस जिले का नाम अंबेडकरनगर न होता, सवाल उठ रहा है, कि इससे लोहियाजी की प्रासंगिता कम हुई क्या? आज भी अंबेडकरवादी अंबेडकरजी को और समाजवादी लोहियाजी को अपना आदर्ष मानते हैं, इसी तरह बाबू शिवदयाल सिंह चौरसिया और पटेलजी दोनों आदरर्श, किसी चौराहें पर गेट और प्रतिमा लगा देना ही महापुरुषों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि नहीं होती। महापुरुषों को जाति में बांटने से सामाजिक तानाबाना कमजोर हो जाता, यह गलत संदेष जाता हैं, कि जाति ही किसी व्यक्ति की पहचान है, न कि उसके कर्म और योगदान। जब किसी महापुरुष को उसकी जाति के आधार पर पहचाना जाता है, तो यह अन्य जातियों के लिए भेदभाव का कारण बनता, इससे समाज में विभाजन बढ़ता, एकता कमजोर होती है। जनता को भी यह समझना होगा कि जब-जब महापुरुषों को जाति में बांटा गया, तब-तब समाज का विभाजन हुआ। भेदभाव बढ़ा। इससे न केवल एकता और समरसता में कमी आई, बल्कि महापुरुषों के योगदान को भी सही रुप से समझने में बाधा आई।

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