हर्रैया के कोर्ट का मालिक एसडीएम नहीं अधिवक्ता

हर्रैया के कोर्ट का मालिक एसडीएम नहीं अधिवक्ता

हर्रैया के कोर्ट का मालिक एसडीएम नहीं अधिवक्ता!

-इस तहसील में अधिवक्ताओं की मर्जी से चलता कोर्ट, बिना इनकी अनुमति के कोर्ट चल ही नहीं सकता

-जब इन्हें लगने लगता है, कि साहब इनके मर्जी के विपरीत आर्डर करने वाले हैं, तो यह लोग साहब से ही भिड़ जातें

-कहते हैं, कि अगर इतनी जल्दी-जल्दी आर्डर होगा और कोर्ट चलेगी तो उनकी रोजी-रोटी का क्या होगा?

-जनता को न्याय मिलने लगेगा तो मेरा मेहनताना कैसे मिलेगा, महीने में पांच दिन भी कोर्ट नहीं चल पाता

-बात-बात में कार्य बहिष्कार करने से अधिवक्ताओं की छवि तो खराब हो ही रही है,  वादकारियों का नुकसान भी हो रहा

जो मुकदमा एक साल में निस्तारित होने वाला रहता है, वह कार्य बहिष्कार के चलते सालों लग जाते, अधिक कोर्ट चलेगी तो अधिवक्ताओं की पत्रावली कम हो जाएगी

-जो वादकारी चालाक होते हैं, वह वकीलों के माध्यम से नहीं बल्कि साहब से सीधा सौदा करते, जिससे उनका वकील साहब वाला हिस्सा बच जाता

-जब कभी वकील साहब लोग ठेकेदार की भूमिका निभाने लगते हैं, तब थप्पड़ कांड होता

-जो जायज काम होता है, जिसे करना साहब की मजबूरी होती, उन मामलों में भी वकील साहब लोग कहते हें, कि साहब पांच हजार मांग रहें, साहब जब यह देखते हैं, कि उनके नाम पर पैसे लिए जा रहे हेै, तो वह भी लेने लगते

-हर्रैया के वकील साहब लोग अच्छी तरह जानते हैं, कि न तो एफआईआर वापस होगा और न फाइनल रिपोर्ट ही लगेगा, फिर इन दोनों के नाम पर कार्य बहिष्कार कर रहें

बस्ती। हर्रैया के वकील साहब लोग माने या न माने लेकिन यह सच हैं, कि उनकी छवि आम जनता और वादकारियों के बीच दिन-प्रति-दिन खराब होती जा रही है। बार-बार कार्य बहिष्कार करने से वादकारियों को लगता है, कि वकील साहबों को उनके हितों की कोई परवाह नहीं। वकील साहब लोगों को अच्छी तरह मालूम हैं, कि एसडीएम साहब न तो कभी मुकदमा वापस लेगें और न कभी इस केस में पुलिस फाइनल रिपोर्ट ही लगा सकेंगी, फिर भी यह लोग इन दोनों मांगों के माने जाने तक कार्य बहिष्कार पर अड़े हुए है। कहा जा रहा है, इनमें और लेखपालों के आंदोलन में क्या फर्क रह गया, वे भी अच्छी तरह जानते थे कि अघिवक्ताओं की गिरफतारी नहीं हो सकती, फिर भी गिरफतारी की मांग को लेकर धरने पर बैठे रहे। हर्रैया के अधिवक्तताओं को शायद यह नहीं मालूम कि सोशल मीडिया में उनके कार्यशैली को लेकर क्या-क्या कमेंट हो रहे है। दुबौलिया के विजयपाल लिखते हैं, कि इस तहसील में अधिवक्ताओं की मर्जी से कोर्ट चलता, बिना इनकी अनुमति के कोर्ट चल ही नहीं सकता जब इन्हें लगने लगता है, कि साहब इनके मर्जी के विपरीत आर्डर करने वाले हैं, तो यह लोग साहब से ही भिड़ जातें, वकील साहब लोग साहबों से कहते हैं, कि अगर इतनी जल्दी-जल्दी आर्डर होगा और कोर्ट चलेगी तो उनकी रोजी-रोटी का क्या होगा? जनता को न्याय मिलने लगेगा तो मेहनताना कौन देगा? महीने में पांच दिन भी कोर्ट नहीं चल पाती। लिखते हैं, कि मैं 20 साल से हर्रैया तहसील आ जा रहा हूं, सब देख रहा हूं, मेरी नजर में सारी गलती वकील साहबों की है। लिखते हैं, कि वैसे तो कोर्ट का मालिक एसडीएम होते हैं, लेकिन हर्रैया में कोर्ट का मालिक वकील साहब हैं। बिना इनकी अनुमति के कोर्ट चल ही नहीं सकती। वकील साहब लोग खुद नहीं चाहते कि कोर्ट नियमित चले, क्यों कि अगर कोर्ट नियमित चलेगी तो इनकी पत्रावलियां कम हो जाएगी। कहते हैं, कि अगर अधिवक्ता चाह जाए तो कोई भ्रष्टाचार कर ही नहीं सकता, जिस दिन अधिवक्ता चाह लेगें, उस दिन हर्रैया तहसील भ्रष्टाचारमुक्त वाला प्रदेश का पहला तहसील बन जाएगा, और यह तब होगा, जब अधिवक्तता अपने पेशे के साथ पूरी तरह ईमानदारी बरतेगें। जिस दिन यह लोग अपने क्लाइंट के केस को मजबूती से कोर्ट में प्रस्तुत करने लगेंगे और पुरजोर बहस करने लगेंगे, उस दिन किसी भी साहब की हिम्मत नहीं पड़ेगी कि वह गलत निर्णय कर सके। जब तक बैक डोर से काम करना/कराना बंद नहीं होगा, तब तक न तो हर्रैया तहसील की और न ही यहां के अधिवक्तताओं की छवि सुधरेगी। अधिवक्ताओं पर जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का आरोप लग रहा है, उसके बारे में सभी अधिवक्ताओं को मंथन करना होगा। अगर आम जनता का समर्थन लेना है, तो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के बजाए भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ ईमानदारी से आवाज बुंलद करनी होगी। कुछ ऐसे भी अधिवक्ता हैं, जो यह चाहते हैं, कि बात-बात में कार्य बहिष्कार न हो, क्यों कि इससे सबसे अधिक नुकसान वादकारियों का ही होता है, लेकिन ऐसे वकील साहबों की चलती ही नहीं। एक व्यक्ति ने कहा कि अब तो क्लाइंट भी चालाक होता जा रहा है, जब किसी क्लांइट का यह लगने लगता है, कि वकील साहब को बीच में डालने से खर्चा बढ़ जाएगा, तो वह किसी न किसी के माध्यम से सीधे साहबों से संबध बनाता हैं, और कहता है, कि साहब यह मेरा सही मामला हैं, हम आपको को इतना देगें, साहब भी यह सोचकर रख लेते हैं, कि उन्हें तो सही करना ही हैं, तो क्यों न जो मिल रहा है, उसे रख लिया जाए। यहां पर दोनों का काम हो जाता है, और बेचारे वकील साहब देखते ही रह जाते है। एक ने तो यहां तक कहा कि जो काम होने लायक रहता भी है, उसमें भी वकील साहब कहते हैं, कि साहब पांच या दस हजार मांग रहे है। ताकि उन्हें पूरा का पूरा लाभ मिल गया। बातचीत में कहीं न कहीं साहब क्लाइंट से पूछ ही लेते हैं, तब साहब यह सोचते हैं, कि जब उनके नाम पर लिया जा रहा है, तो क्यों न वह भी ले। इसी लिए अधिवक्ताओं पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का आरोप लग रहा है।

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