छोटे कद वाले बड़े साहित्यकार,

छोटे कद वाले बड़े साहित्यकार,

छोटे कद वाले बड़े साहित्यकार,                    वह साहित्यकार हैं। साहित्यकार होने के नाते उन्हें स्वयं को विशिष्ट समझने का अधिकार प्राप्त है। वह आम जनता पर लिखने का दावा करते हैं, लेकिन विशिष्ट होने के नाते उनका आम जनता से कोई सरोकार नहीं है।

स्वयं को विशिष्ट समझने के कारण उनका लेखन भी विशिष्ट लोग ही समझ पाते हैं। वह बड़े साहित्यकार तो हैं ही, उनका डील-डौल भी बड़ा है, लेकिन लोग कहते हैं कि उनका कद बहुत छोटा है। वह स्वयं भी यह नहीं समझ पाए हैं कि डील-डौल बड़ा होने के बावजूद उनका कद छोटा क्यों है।

वह चाहते हैं कि वह जितने बड़े साहित्यकार हैं, उनका कद भी उतना ही बड़ा हो जाए, लेकिन वह कद बढ़ाने की जितनी कोशिश करते हैं, उनका कद उतना ही छोटा होता जाता है। हारकर उन्होंने अपना कद बढ़ाने की कोशिश छोड़ दी है।

अब उनका सारा ध्यान रचना का कद बढ़ाने पर है। इस समय उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि उनकी रचना उनके कद जितनी छोटी न हो जाए। रचना का कद बढ़ाने के लिए वह दिन-रात एक किए हुए हैं।

अति उत्साह में एक दिन उन्होंने पूरे शहर में पोस्टर चिपका दिए कि वह अंतिम समय तक रचना का कद बढ़ाने की कोशिश करते रहेंगे। तब जाकर शहर की साहित्यिक जमात को पता चला कि रचना का भी कोई कद होता है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समीक्षकों को उनकी यह मेहनत दिखाई ही नहीं देती है।

साहित्यकार जी ने यह मान लिया है कि वह विशिष्ट और बड़े साहित्यकार हैं, इसलिए उनकी रचना तो स्तरीय होगी ही। जब प्रतिस्पर्धा के इस दौर में ऐसा विश्वास साथ हो तो रचना के स्तरीय न होने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

आजकल विश्वास का बड़ा टोटा है। लाख कोशिश करो, लेकिन स्वयं पर विश्वास नहीं होता। साहित्यकार बनते ही विश्वास अपने आप हमारे साथ हो लेता है। इस अटूट विश्वास के कारण ही उन्हें यह पक्का भरोसा हो गया है कि वह जो लिखते हैं, हमेशा स्तरीय ही होता है।

फलस्वरूप इस बात पर माथापच्ची करने से तो छुट्टी मिल जाती है कि रचना स्तरीय है या नहीं? इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि रचना के स्तर पर कभी बात ही नहीं होती है। लिहाजा सुबह-शाम रचना करने का हौसला दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता रहता है।

साहित्यकार जी ने अपने हौसले के आधार पर कई किताबें लिख मारी हैं। छपते ही वह मित्रों को डाक से किताब भेजनी शुरू कर देते हैं। जब यह काम खत्म हो जाता है तो स्थानीय स्तर पर मित्रों को अपनी किताब बांटने निकल पड़ते हैं।

किताब बांटकर जब वह घर आते हैं तो उन्हें असीम संतुष्टि प्राप्त होती है। संतुष्टि की तीव्रता इतनी अधिक होती है कि रात को नींद भी नहीं आ पाती है। दूसरे दिन सुबह उठते ही वह मित्रों को फोन कर किताब पर प्रतिक्रिया मांगनी शुरू कर देते हैं।

जब कुछ मित्र उनका फोन नहीं उठाते हैं तो उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ जाता है और वह ऐसे लोगों को साहित्य का दुश्मन घोषित कर देते हैं। कुछ ऐसे भले जीव भी होते हैं, जो सारी रात घोड़े बेचकर सोते हैं और जब उनसे किताब पर प्रतिक्रिया मांगी जाती है तो बड़े ही गर्व से बताते हैं कि उन्होंने सारी रात जागकर किताब पढ़ी है।

ऐसी अद्वितीय किताब उन्होंने आज तक नहीं पढ़ी है। यह सुनकर बड़े वाले साहित्यकार और बड़े हो जाते हैं। हालांकि कई दिनों तक खुशी से उछलने के बावजूद उनका कद बड़ा नहीं होता है।

साहित्यकार जी जब अपनी किताब पर विभिन्न नामों से स्वयं समीक्षा लिखकर पत्रिकाओं में छपवाने की जी-तोड़ कोशिश करते हैं तो उनके सामने राजनीति के घाघ खिलाड़ी भी फीके लगने लगते हैं।

एक दिन साहित्य के एक नासमझ पाठक ने जब उनकी किताब पढ़कर कहा कि मैं यह नहीं समझ पाया हूं कि आपकी रचना क्या कहना चाहती हैं? तो उन्होंने पाठक को पकड़कर वहीं बैठा लिया और उसे रचना का मर्म समझाने लगे, लेकिन थोड़ी देर बाद ही पाठक नींद के आगोश में समा गया।

 रोहित कौशिक। 

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