रेवड़ी संस्कृति लोकतंत्र के लिए खतरा
- Posted By: Tejyug News LIVE
- देश
- Updated: 9 December, 2025 19:57
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रेवड़ी संस्कृति लोकतंत्र के लिए खतरा
चुनावों में रेवड़ी संस्कृति' या मुफ्त योजनाओं का चुनावी प्रस्ताव भारतीय राजनीति में एक प्रमुख और बढ़ता हुआ चलन बन गया है। यह प्रव्रति अब केवल एक विशेष दल या क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि देशव्यापी हो चुकी है, जिसके आर्थिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक प्रभाव देखने को मिल रहे है। रेवड़ी संस्कृति से तात्पर्य चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त सुविधाएँ, नकद भुगतान या अन्य लाभों के वादे करने की प्रथा से है और इस संस्कृति से अब कोई भी दल एवं राज्य अछूता नही रह गया है
अभी हाल ही में सम्पन्न हुए विहार विधानसभा चुनावों में, हर चुनावी सभा में ,गली-मोहल्ले से लेकर सोशल मीडिया तक मुफ्त रेवड़ियों की घोषणाएँ और वादे किए गए। महागठबंधन हो या एन डी ए दोनों गठबंधन एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ऐसे वायदे किए जो सुनने में आकर्षक लगते है, पर उनकी व्यावहारिकता और आर्थिक पर गम्भीर प्रश्न उठाते है। हालाकि विहार में महिलाओं को प्रत्यक्ष नकद लाभ योजना के तहत सीधे दस हजार रुपये की आर्थिक सहायता को एनडीए की जीत का अहम कारण माना जा रहा है।
इस संस्कृति को लेकर दो गम्भीर बहस चल रही है, एक पक्ष का कहना है कि यह गरीबों और जरूरतमंदों के लिए एक सुरक्षा कवच का काम करती है जिससे उन्हें तात्कालिक आर्थिक मदद मिलती है और महिलाओं को नगद सहायता जैसी योजनाओं से आर्थिक सशक्तिकरण व स्वरोजगार में मदद मिलती है, जवकि द्वितीय पक्ष का मानना है कि यह राज्यों के वित्त पर बोझ डालती है। मुफ्त योजनाओं पर होने वाले भारी खर्च बुनियादी ढाँचे, शिक्षा, स्वास्थ्य और उत्पादक क्षेत्रों में निवेश को पीछे धकेल देता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस सम्बन्ध में टिप्पणी की है कि मुफ्त की योजनाएँ लोगों में काम करने की प्रवृत्ति को कमजोर करती है और एक " आलस्य की संस्कृति को जन्म दे सकती है, इससे समाज में श्रम के महत्व में कमी आती है।30 अप्रैल 2025 को न्यायमूर्ति सूर्यकान्त जी की पीठ ने सुझाव दिया कि राज्य सरकारों को मुफ्त राशन, मुफ्त योजनाएँ, सरकारी नौकरियों का प्रलोभन देने की अपेक्षा व्यावहारिक प्रशिक्षण, कौशल विकास और रोजगार सृजन करने वाले उद्योगों में निवेश पर ध्यान देना चाहिए।" अतः इस चुनौती से निपटने के लिए एक संतुलित द्रष्टिकोण की आवश्यकता है जहाँ जरूरत मंदों तक लक्षित सहायता पहुँचाने के साथ-साथ देश की दीर्धकालिक उत्पादन क्षमता को बढ़ाने वाली नीतियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इस प्रकार की योजनाएं कुछ मामलो में गरीब और जरूरतमंद लोगों के लिए राहत प्रदान कर सकती है, लेकिन जब में चुनावी हथियार बन जाती है तो अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र दोनों के लिए हानिकारक साबित हो सकती हैं। इसका केवल कानून बनाने में नहीं बल्कि एक जागरूक नागरिक समाज, जिम्मेदार राजनीतिक दल और दीर्घकालिक विकास पर केन्द्रित नीतियों को अपनाने में है।
प्रो. (डॉ).) उमेश कुमार दीक्षित (समाजशास्त्री)
मोनाड विश्वविधालय, हापुड़ (उ.प्र)

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