भाजपा कब तक दलितों को अछूत मानती रहेगी? आखिर इनसे क्यों इतनी नफरत?

भाजपा कब तक दलितों को अछूत मानती रहेगी? आखिर इनसे क्यों इतनी नफरत?

भाजपा कब तक दलितों को अछूत मानती रहेगी? आखिर इनसे क्यों इतनी नफरत?

-क्या भाजपा को 17 सालों में एक भी दलित नेता नहीं मिला, जो अध्यक्ष बन सके

-क्या जिलाध्यक्ष बनने की सारी खासियत और खूबी ब्राहृमणों और ठाकुरों में ही?

अब तक चार बार ठाकुर और पांच बार ब्रहृमण जिलाध्यक्ष बन चुके, एक बार ओबीसी और एक बार सामान्य को मौका मिल चुका, लेकिन आज तक एक भी दलित को पार्टी ने जिलाध्यक्ष नहीं बनाया

-ऐसा लगता मानो भाजपा के सबका साथ सबका विकास के नारे में दलित नहीं आते, भाजपा ने 20 फीसद आबादी को जोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया

बस्ती। देखा जाए तो जिले में भाजपा ने दलितों को इतना अछूत मान लिया हैं, कि उन्हें आजतक जिलाध्यक्ष की कुर्सी पर नहीं बढ़ाया। क्या भाजपा में दलित नेता होना गुनाह या पाप हैं, अगर नहीं है, तो क्यों नहीं जिला अलग होने के बाद अभी तक एक भी दलित को जिलाध्यक्ष बनाया? क्या इन 17 सालों में भाजपा को एक भी ऐसा दलित नेता नहीं मिला, जिसे अध्यक्ष बनाया जा सके? सवाल उठ रहा है, कि आखिर भाजपा को दलित से इतनी नफरत क्यों? अगर हैं, तो क्यों सबका साथ सबका विकास का नारा देते है। सवाल तो यह भी उठ रहा है, कि अगर ठाकुर और ब्राहृमण ही जिलाध्यक्ष बनने की योग्यता रखते हैं, तो दलित क्यों नहीं? आखिर भाजपा वाले इन्हें इतना अछूत क्यों मानते हैं? वोट मांगने के लिए तो इनके झोपड़ियों में चले जाते हैं, जमीन पर बैठकर उनके साथ भोजन करते हैं, कटे फटे कपड़ा पहने बच्चे को गोद में उठाकर पुचकारते हैं, तो फिर इस वर्ग को क्यों नहीं जिलाध्यक्ष बनने का अवसर दिया जाता है। जब ओबीसी और कायस्थ को दिया सकता है, तो इन्हें क्यों नहीं? अगर भाजपा इन्हें अवसर नहीं देगी तो यह लोग कैसे भाजपा से जुड़ेगें? ऐसा लगता है, कि मानो भाजपा के एजेंडें में दलितों को आगे बढ़ाने का है, ही नहीं। रही बात योग्य और अयोग्य की तो भाजपा में ही कई ऐसे ब्रहृमण और ठाकुर सहित ओबीसी एवं कायस्थ वर्ग के जिलाध्यक्ष बने जिनकी योग्यता पर पार्टी के कार्यकर्त्ता ही सवाल खड़ा करते रहे। भाजपा के लिए एक अवसर हैं, जब वह दलित को जिलाध्यक्ष बनाकर दलित वोटरों को अपने साथ छोड़ सकती है। जिले का दलित वर्ग अपने नेता को जिलाध्यक्ष बनना देखना चाहती है। पार्टी के पास एक सुनहरा अवसर है, जब वह एक खाटी दलित कार्यकर्त्ता को संजीवनी देकर पुनः पार्टी को जीवित कर सकती है। भाजपा के विरोध में जा रहें दलितों को अगर जोड़ा नहीं गया तो इसका खामियाजा 2022 एवं 2024 की तरह 2027 में भी भुगतना पड़ सकता है। अगर पार्टी ठाकुर और ब्राहृमण जिलाध्यक्षों पर निर्भर रहेगी तो नुकसान उठाना पड़ सकता है, इस नुकसान की भरपाई के लिए इस बार किसी दलित को ही पार्टी को जिलाध्यक्ष बनाना चाहिए। अगर विधानसभा अनुजाति के लिए आरक्षित हो सकती है, तो क्यों नहीं दलित जिलाध्यक्ष के लिए आरक्षित हो सकता। भाजपा के अनेक कर्मठी दलितों का कहना हैं, कि पार्टी सभी वर्गो को जिलाध्यक्ष बनने का मौका दे चुकी हैं, अब समय आ गया है, कि यह मौका किसी दलित को मिले। जिस दिन किसी दलित को जिलाध्यक्ष बनने का मौका मिला उस दिन जिले के असंख्य दलित वोटर भाजपा को वोट देगें। फिर किसी नेता को वोट मांगने के लिए ना तो उनकी झोपड़ी में जाना पड़ेगा और ना ही उनके साथ भोजन ही करना पड़ेगा और ना ही उनके कटे फटे कपड़ा पहने बच्चों को गोंद में उठाना पड़ेगा। अब हम आप को उन जिलाध्यक्षों के बारे में बताते हैं, जिन पर पार्टी ने भरोसा किया, और यह लोग भरोसे पर कितना खरा उतरे इसका निर्णय आप करंे। सबसे पहले ब्राहृमण वर्ग के, दयाशंकर मिश्र, प्रेमसागर तिवारी, महेशु शुक्ल, विवेकानंद मिश्र और छह माह के लिए संयोजक बनाए गए लक्ष्मी शुक्ल का नाम शामिल है। ठाकुर वर्ग में शीतला सिंह, यशकांत सिंह, सुशील सिंह दो बार, एक बार ओबीसी के पवन कसौधन और एक बार कायस्थ के स्कंद लाल श्रीवास्तव का नाम जिलाध्यक्षों में शामिल है। अब सबसे सवाल यह है, कि इस सूची में क्यों नही किसी दलित अध्यक्ष का नाम शामिल? अगर पार्टी में एससी मोर्चा बन सकता है, तो क्यों नहीं दलित अध्यक्ष बन सकता? इस सवाल का जबाव पार्टी के उन लाखों दलितों को देना होगा, जिन्हें हर बार उपेक्षा का शिकार होना पड़ता हैं। याद रहे, यह एक ऐसा वर्ग हैं, जो किसी के हार और जीत का कारण बनता रहा है। इन्हें अपना बनाइए फिर देखिए चुनाव का नतीजा। ऐसा भी नहीं कि भाजपा में इस वर्ग के शिक्षित और योग्य व्यक्ति नहीं हैं, चूंकि इन्हें अभी तक मौका नहीं मिला, वरना यह भी दिखा देते कि हम भी किसी से कम नहीं।

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